Monday, September 28, 2009

भगवान को जानना है तो शरणागति जरूरी

विनय बिहारी सिंह

मेरे एक परिचित ने अपने मन की बात बताई। उन्होंने कहा-
हर चीज भगवान पर कैसे छोड़ सकते हैं। आखिर मनुष्य को अपना कर्तव्य तो करना ही पड़ेगा। । कभी- कभी शक होता है कि पता नहीं भगवान काम पूरा करेंगे कि नहीं। इसलिए भगवान को भी याद करते हैं और कर्तव्य में भी लगे रहते हैं।
उनकी शंका को समझा जा सकता है। जब आप भगवान को आधे- अधूरे ढंग से मानेंगे तो यह शक होगा ही। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- संशयात्मा विनश्यति। यानी संशय से कोई काम नहीं करना चाहिए। जिन लोगों को यह विश्वास नहीं है कि भगवान हैं या नहीं, उन्हें भगवान को याद कर कोई काम नहीं करना चाहिए। यह बात तो सिद्ध है कि जन्म से पहले हम कहीं थे और मृत्यु के बाद भी कहीं रहेंगे। गीता में कहा गया है कि जन्म और मृत्यु के बीच में हमारा जीवन है। लेकिन ईश्वर हमारे साथ हमेशा रहते हैं। अब यह प्रश्न तो उचित नहीं है कि जब ईश्वर है तो दिखाई क्यों नहीं देता। अरे भाई उसने यह पूरी सृष्टि बना दी है। इससे क्या आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि इसका बनाने वाली कोई असीमित ताकत है? हां, अगर उस ताकत को देखना चाहते हैं तो उसके नियम हैं। हर चीज का नियम है। आप चावल भी पकाते हैं तो उसका एक नियम है। रोटी भी पकाते हैं तो उसकी एक पद्धति है। ठीक इसी तरह अगर आपको भगवान को देखना है तो आपको किसी ईश्वरप्राप्त व्यक्ति से साधना सीखनी पड़ेगी, आपको उसका अभ्यास करना पड़ेगा। जब आप इस अभ्यास या साधना में सिद्ध हो जाएंगे तो भगवान आपको दर्शन देंगे। लेकिन अगर आप चाहेंगे कि आपकी मर्जी से भगवान आपको दर्शन दें तो यह कैसे संभव है? भगवान अपनी मर्जी से दर्शन देंगे। अब आप कहें कि यह सब फालतू बातें हैं। ऐसे व्यक्ति को हम कहां ढूढें जो ईश्वरप्राप्त है, और साधना का समय नहीं है। तो फिर आपको वह बात मान लेनी चाहिए जिसे महान संतों, ऋषि- मुनियों या सन्यासियों ने कही है। उन्होंने कहा है कि आप पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर को याद कीजिए। उनका नाम- जप कीजिए। पूर्ण शरणागति चाहिए। तब भगवान खुद ही दर्शन देंगे। कब दर्शन देंगे, यह वे ही जानते हैं। लेकिन दर्शन देंगे जरूर। आप पूर्ण शरणागति की स्थिति में तो जाइए। तर्क से तो कुछ नहीं होता। तर्क करने से चावल नहीं पक सकता। वह तो तभी पकेगा जब आप चावल पकाने की विधि अपनाएंगे। आप चाहे लाख इंटेलेक्चुअल बातें कीजिए, चावल नहीं पक सकता। आप चाहे अनपढ़ हों या महान पंडित, चावल पकाने के लिए एक खास पद्धति अपनानी पड़ेगी। ठीक उसी तरह इंटेलेक्चुअल बातें करते रहने से भगवान के बारे में हम नहीं जान सकते। उसके लिए शरणागति ही एक मात्र उपाय है। (आज के बाद दिन बाद भेंट होगी- विनय बिहारी सिंह )

Saturday, September 26, 2009

मन ही सारे प्रपंचों की जड़

विनय बिहारी सिंह

उपनिषदों में कहा गया है- मन एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो। यानी मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। मन ही हमें भरमाता रहता है और तरह- तरह की कामनाएं पैदा करता रहता है। यानी- यह भोजन करता तो कितना आनंद आता? अमुक से मिलता तो क्या ही अच्छा होता। या यह ड्रेस पहनता तो कितना अच्छा लगता? या अमुक जगह घूमने जाता तो कितना अच्छा होता। हजार- हजार कामनाएं। लेकिन जब आप वह शौक पूरा कर लेते हैं तो मन वहीं नहीं रुकता। फिर कोई कामना लेकर आपको बेचैन करने लगता है। यानी कामनाओं का अंत नहीं है। जब तक जीवन है तब तक कामनाएं हैं। तो फिर इन कामनाओं पर लगाम कैसे लगाई जाए? विवेक से। एकमात्र उपाय विवेक ही है। हमें जितनी जरूरत है, उसी से काम चलाएं। अपनी इच्छाओं को बेलगाम न होने दें। जैसे भोजन बनाने के लिए हर वस्तु की एक निश्चित मात्रा होती है, तभी स्वादिष्ट भोजन बनता है, उसी तरह मन को भी ईश्वर पर केंद्रित करने से अनावश्यक लोभ और कामनाएं खत्म होने लगती हैं। तब आपको लगता है कि यह शरीर भी तो आपका अपना नहीं है। इसे ईश्वर ने आपको दिया है- आपके माता- पिता के माध्यम से। जब यह शरीर ही हमारा नहीं है तो इस पर जरूरत से ज्यादा ध्यान देने का मतलब क्या है? क्यों न हम उस मालिक पर ध्यान दें, जिसने यह शरीर दिया है। आप भगवान से कह सकते हैं- हे भगवान, जैसे आपने यह मेरा शरीर दिया है, उसी तरह कृपा करके दर्शन भी दीजिए। यह शरीर तो एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा। चाहे यह कितना भी सुंदर क्यों न हो। तो जब इसे मैं सदा अपने साथ नहीं रख सकता तो फिर जरूरत से ज्यादा आसक्ति क्यों? हे भगवान आप ही मेरे साथ हमेशा रहेंगे। चाहे जीवन में या मृत्यु के बाद। हे प्रभो, दर्शन दीजिए। बस भीतर से गहरी श्रद्धा से की जाने वाली आपकी पुकार को भगवान अनसुनी नहीं कर सकते।

Friday, September 25, 2009

चामुंडा देवी यानी शक्ति रूपिणी मां

विनय बिहारी सिंह

कर्नाटक में जिसे देवी चामुंडा कहते हैं, महाराष्ट्र में जिसे संतोषी मां और मां भवानी कहते हैं, जम्मू- कश्मीर में जिसे वैष्णव देवी कहते हैं, असम में जिसे कामाख्या कहते हैं, गुजरात में जिसे भद्रकाली कहते हैं और पश्चिम बंगाल में जिसे मां दुर्गा और काली कहते हैं, उसी मां के पूजन का समय चल रहा है। उसी मां ने महिषासुर का वध किया था इसीलिए उनका नाम महिषासुरमर्दिनी पड़ा। पूर्वी भारत में मां दुर्गा और इसके बाद दीपावली के दिन काली पूजा होती है, हमारे उत्तर भारत में विजयादशमी मनाई जाती है। उसी को पूर्वी भारत में दुर्गापूजा कहा जाता है। विजयादशमी भी रावण पर भगवान राम की विजय का प्रतीक है। विभिन्न प्रांतों में शक्तिरूपिणी मां का अलग- अलग नाम है, अलग- अलग रूप है। कहीं तो उनका रूप छिन्नमस्ता भी है। मां तारा भी वही कही जाती हैं। तो कुल मिला कर सार यही है कि असुर प्रवृत्ति पर देव प्रवृत्ति की विजय। देवता औऱ असुर दोनों ही हमारे भीतर हैं। अगर हम अपने भीतर के असुर को पुष्ट करेंगे, उसकी कही सुनेंगे तो हमारा पतन होगा। लेकिन अगर हम अपने भीतर के देवता की बात सुनेंगे तो सुखी और आनंद में रहेंगे। यह दुर्गापूजा का त्यौहार या दशहरा या विजयादशमी का त्यौहार हमें अपने भीतर के देवता को और पुष्ट करने के लिए प्रेरित करता है।

Thursday, September 24, 2009

मन की सफाई- भाग २

विनय बिहारी सिंह

मन की सफाई के बारे में रामकृष्ण परमहंस ने कहा है- जैसे लोटा रोज मांजना पड़ता है, उसी तरह अपना अंतःकरण भी रोज मांज लेना चाहिए। यानी आत्मविश्लेषण के बाद हर रात आप यह दृढ़ निश्चय कर सकते हैं- जो हुआ सो हुआ, अब कल से बेहतर शुरूआत करेंगे। और अगले ही दिन से आप पिछले दिन की तुलना में प्रसन्न मन से काम में जुट जाते हैं। अब तक आप जान चुके होते हैं कि क्रोध या घृणा का कोई फायदा नहीं है। नुकसान ही नुकसान है। क्रोध से हमारे शरीर में हानिकारक हारमोन पैदा होते हैं और तंत्रिका तंत्र पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर आपने क्रोध में किसी को कुछ बोल दिया तो बाद में आप पाएंगे कि आपके भीतर अफसोस जैसी बात भी आ जाती है। आपका मन कहेगा- बेकार ही गुस्से में आ गया। पूरा दिन खराब हो गया। अब यह अफसोस भी आपके शरीर पर बुरा ही प्रभाव डालता है। इसलिए क्रोध, घृणा या तनाव को झटक कर आप शांत भाव से दिन के शुरू में ही भगवान से प्रार्थना कीजिए- हे भगवान, आज का दिन खूब शांति औऱ आनंद के साथ बीते। फिर रात को सोते समय भगवान से प्रार्थना कीजिए- हे भगवान, आपने मुझे यह दिन शांति से बिताने में मदद की इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। इस तरह लगभग दिनचर्या बना कर आप शांतिमय जीवन गुजार सकते हैं। क्योंकि जितना ज्यादा कचरा हमारे भीतर रहता है, हम उतने ही तनाव में रहते हैं। एक बार सारा कचरा साफ हो जाए, बस आनंद ही आनंद है। जैसे हम लोग शरीर में इकट्ठे कचरे को साफ करने के लिए उपवास करते हैं, उसी तरह मन को साफ करने के लिए भी यह तय करना पड़ेगा कि आज हम मन पर कोई तनाव नहीं पड़ने देंगे और मन में बुरे या निगेटिव विचार नहीं आने देंगे। ऐसा कोई एक दिन तय कर लिया जाए। एक दिन उपवास का और एक दिन मन की सफाई का। फिर देखिए क्या ही आनंद है आपके जीवन में। लेकिन इसका परिणाम तुरंत नहीं मिलेगा, महीने या डेढ़ महीने बाद मिलना शुरू होगा। बीच बीच में आप अपने को चेक करते रहिए- क्या मुझे पहले से कम क्रोध आ रहा है? क्या मैं पहले की तुलना में खाने की चीजों पर कम टूट पड़ता हूं। क्या दिन भर मैं सकारात्मक विचार के साथ रहा या खराब विचार भी मेरे मन में आए? ऐसा करते करते आप पाएंगे कि आपमें गजब का सुधार हो रहा है। यही तो हम सभी चाहते हैं कि मन शांत हो, आनंदमय हो और वह ईश्वर में लगा रहे। मन जितना शांत होगा, उतना ही ईश्वर की तरफ आकर्षित होगा। ईश्वर यानी हम सबका परमप्रिय और सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वग्य।

(मित्रों मैं २७ सितंबर से ९ दिनों के लिए शिमला जा रहा हूं। इस बीच इस ब्लाग पर कुछ लिख नहीं पाऊंगा।)

Wednesday, September 23, 2009

शरीर के साथ मन भी स्वस्थ होना चाहिए

विनय बिहारी सिंह

हम अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ हवा का सेवन, पौष्टिक और स्वच्छ भोजन, स्वच्छ वस्त्र और व्यायाम इत्यादि करते हैं। यह आवश्यक भी है। लेकिन हममें से कई लोग मन को स्वस्थ रखने पर ज्यादा विचार नहीं करते। मन को जहां- तहां घूमने देते हैं। जैसे मनुष्य जहां- तहां भटकता है और कपड़ों के अलावा शरीर पर न जाने कितनी धूल और गंदगी इकट्ठा हो जाती है। इसको साफ करने के लिए उस दिन नहीं तो अगले दिन हमें स्नान करना पड़ता है, उसी तरह मन को प्रति दिन साफ करना पड़ता है। कैसे? मन को साफ करने के लिए कौन सा साबुन या सर्फ है? वह साबुन है- ईश्वर का स्मरण। बस ईश्वर से यही प्रार्थना करनी चाहिए- हे ईश्वर मुझसे आज जाने-अनजाने जो भी गलती हुई हो, क्षमा करें और मुझे उचित राह पर चलने की प्रेरणा दें। संतों ने कहा है- दिन भर आपने जो कुछ किया है उसके मद्देनजर आत्मनिरीक्षण करें। कहीं आपसे ऐसा कुछ तो नहीं हुआ है कि जो नहीं करना चाहिए। क्या किसी से क्रोध में बोल दिया है? आपसे किसी तरह का दुर्व्यवहार हो गया है? वगैरह, वगैरह। यह है आत्मनिरीक्षण। इससे खुद को सुधारने का मौका मिलता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- मनुष्य अपना खुद ही मित्र है और खुद ही शत्रु। इस तरह अपने भीतर झांकने का अभ्यास हमारे भीतर की मैल को साफ कर देता है। बस पांच- दस मिनट में यह काम हो जाएगा। आप रात को सोने से पहले यह काम कर सकते हैं। फिर नींद में जाने से पहले प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। कई लोग भगवान का ध्यान करते हैं। वे भाग्यशाली होते हैं। सोने से पहले और जागने के तुरंत बाद ईश्वर का ध्यान करना भाग्यशाली होना है। पांच मिनट ध्यान कर लिया फिर बाथरूम गए और दिन के काम की शुरूआत कर दी। लेकिन अगर मन में कोई तनाव, व्यथा, परेशानी या दुख, ऊब या बोरियत वगैरह है तो फिर सावधान हो जाना पड़ेगा। इसका मतलब है मन स्वच्छ नहीं है। तुरंत इसे साफ करना चाहिए। फिर आगे बढ़ना ठीक है। वरना मन पर परत दर परत मैल चढ़ती जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे कपड़े को साफ न किया जाए तो वह इतना गंदा हो जाएगा कि बदबू करने लगेगा। मन तो बदबू नहीं करेगा लेकिन मनुष्य को डिप्रेसन या तनाव में डाले रहेगा। मनुष्य को चिड़चिड़ा बना देगा। या दुखी कर देगा। या मन में किसी बात का भय पैदा कर देगा। या कुछ नहीं तो नींद ही गायब कर देगा। यह सब मन के अस्वस्थ होने के परिणाम हैं। तो क्यों न मन को साफ करते चलें ताकि आगे बढ़ने में कोई दिक्कत न हो।

Tuesday, September 22, 2009

प्रगति का संकेत देते हैं हमारे पैर

विनय बिहारी सिंह

हमारी आंखें सामने की ओर हैं। हमारा पैर सामने की ओर है। क्यों? ताकि हम हमेशा विकास करें। मानसिक, आत्मिक और भौतिक भी। आंखें सामने की ओर हैं। आगे बढ़िए, सामने देखिए। पैर सामने हैं। पीछे चलना है तो आपको घूमना पड़ेगा और फिर सामने की ओर चलना पड़ेगा। हम खराब बातें क्यों सोचें? हां, हो सकता है हमारे जीवन में कोई घटना घटी हो जिससे हम आहत हुए हों। या हो सकता है किसी बात को लेकर आप में से कोई चिंतित हों या तनावग्रस्त हो जाते हों। ऐसे में हमें याद करना चाहिए कि हम तो ईश्वर की संतान हैं। वह हमें लगातार देख रहा है। हमारी देखभाल कर रहा है। चिंता किस बात की? बांग्ला भाषा में कहा जाता है कि मां काली भक्तों से कहती हैं- भय की रे पागल? आमी तो आछी ( डर किस बात का रे पागल? मैं तो हूं ही)। जब भी किसी कठिन स्थिति से गुजरिए, हमेशा भगवान को पुकारिए। वही हमारी समस्या का समाधान करेगा। वही हमारा मालिक है। ईश्वर कहते हैं कि मेरे पास सब कुछ है। बस एक ही चीज मैं चाहता हूं, जीवों का प्यार। हम कहते हैं- तो भगवन, यह भी तो आपके ही हाथ में है। सबके दिल में अपने प्रति प्यार क्यों नहीं पैदा कर देते? आपके लिए तो यह मामूली सी बात है? तब भगवान कहते हैं- नहीं। ऐसे प्यार का आनंद नहीं है। मैंने मनुष्य को फ्री विल या स्वतंत्र इच्छा दी है। वह उसका इस्तेमाल क्यों नहीं करता? मैं क्यों जबर्दस्ती अपने प्रति प्यार करूं। प्यार का तत्व तो मनुष्य के भीतर मैंने दे ही दिया है। वरना वह अपनी पत्नी से, बच्चों से, मित्र से प्रेमी से प्रेमिका से कैसे प्यार करता? जब जीव खुद प्यार से मुझे बुलाए तब मजा है। इसी आनंद का मैं इंतजार करता हूं। कोई मुझे प्यार से बुलाए, दिल में मेरे प्रति चाहत लाए तो मैं दौड़े चला आऊंगा। मैं उस व्यक्ति को और चाहूंगा। और प्यार तो खरीदना नहीं है। कम से कम यह तो मनुष्य मुझे दे ही सकता है।

Saturday, September 19, 2009

आज नवरात्र का पहला दिन

विनय बिहारी सिंह


आज नवरात्र का पहला दिन है। शक्तिदायिनी जगन्माता में श्रद्धा रखने वाले लोग आज व्रत करते हैं। कुछ लोग सिर्फ फलाहार करते हैं, कुछ फल का रस, वह भी एक गिलास सुबह और एक गिलास शाम को पीकर ही २४ घंटा बिता देते हैं। लेकिन कुछ लोग फलाहारी पकवान पेट भर कर खाते हैं, फिर भी कहते हैं कि आज उपवास है। एक संत का कहना है कि उपवास का शाब्दिक अर्थ है, उप- नजदीक वास- रहना। किसके नजदीक रहना? ईश्वर के नजदीक रहना। इसी को उपवास कहते है। तो फिर अन्न क्यों नहीं खाते? परमहंस योगानंद जी कहते हैं- सिर्फ फल का रस पी कर रहने से पेट ही नहीं शरीर का सारा विकार दूर हो जाता है। शरीर के टाक्सिंस शरीर से बाहर निकल जाते हैं। पेशाब के जरिए या शौच के जरिए। एक दूसरा फायदा भी है। व्रत से आपके दिमाग की ताकत भी बढ़ती है।कैसे? जब भी आपके भीतर खाने की प्रबल इच्छा पैदा होती है, आप मन ही मन कहते हैं- आज तो मैं उपवास हूं। भोजन नहीं करना है। धीरे- धीरे आपकी नियंत्रण शक्ति बढ़ती है और आपका माइंड पावर भी बढ़ता है। नवरात्र के सभी दिनों मे मां दुर्गा या काली की अराधना की जाती है। लेकिन जो माता के पूर्ण भक्त हैं वे हमेशा ही यानी बारहों मास अराधना करते हैं। हां, इन नौ दिनो में वे विशेष अराधनाकरतेहैं। अराधना का समय बढ़ा कर दोगुना कर देते हैं। आइए हम सब जगन्माता को प्रणाम करें और अपने भीतर उनके प्रति असीम प्यार पैदा करने की कृपा मांगे।

Friday, September 18, 2009

महालया की विशिष्टता

विनय बिहारी सिंह

पश्चिम बंगाल में महालया को यानी आज भोर में शक्ति की अराधना की जाती है। या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः।। का ऊर्जा जागरण मंत्र दिल के भीतर किस तरह उतरता जाता है, यह श्रद्धा से सुनने वाला ही समझ सकता है। बंगाल के बाहर रहने वाले लोग शायद यह न समझ पाएं कि महालया किस दिन पड़ता है। आश्विन महीने में कृष्णपक्ष के आखिरी दिन पड़ता है यह पर्व। कल से शुक्ल पक्ष आरंभ होगा। पंचांग में इसे आश्चिन बदी १५ संवत २०६६ लिखा गया है। (आज के दिन दिवंगत पितरो के लिए तर्पण करते है)। बंगाल में आज से ही देवी पक्ष शुरू हो गया। कल नवरात्र का पहला दिन है। कई लोग तो लगातार नौ दिन व्रत और पूजा के लिए दफ्तरों से छुट्टी ले लेते हैं। लेकिन कई लोग सिर्फ नवरात्र के पहले और आखिरी दिन ही व्रत रखते हैं और देर रात तक मां दुर्गा का जाप या ध्यान करते हैं। अनेक लोगों का कहना है कि नवरात्र में मां दुर्गा का ध्यान या जप करने से उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। लेकिन मेरा मानना है कि मन में कोई भी कामना न रख कर मां दुर्गा का पूजन या जप या ध्यान किया जाए तो उसका आनंद ही अलग है। बस यही प्रार्थना करनी चाहिए कि मां मुझे अपने प्रति गहरी भक्ति दो, प्रेम दो और मेरे हृदय, बुद्धि और आत्मा में स्थाई घर बना लो। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। ऐसी प्रार्थना से माता खुश होती हैं। कामना लेकर पूजा करने का कोई अर्थ नहीं है। हालांकि कामना करना कोई अपराध नहीं है। संसार है तो कामना का रहना स्वाभाविक ही है। लेकिन सर्वाधिक आनंद तब आता है जब बिना किसी कामना के माता से प्रेम किया जाए। तुम मां हो, इसलिए मैं तुमसे प्रेम करता हूं। क्या यह कहते हुए सरेंडर करना सुखद नहीं है? ऐसे अनेक भक्तों को मैंने देखा है कि मां, मां, मां कहते हुए मां दुर्गा के पैरों पर लोट- पोट हो जाते हैं और बहुत देर तक उन्हें होश ही नहीं रहता कि वे हैं कहां। बस आनंद के सागर में वे गोते लगाते रहते हैं। एक बच्चा मां की गोद में नहीं रहेगा तो कहां रहेगा? अगर आपने मां दुर्गा को मां माना है तो आप और कहां जाएंगे? और मांगना क्या है? कुछ नहीं। मां से उनका प्यार भी नहीं मांगना है। सिर्फ प्यार देना है। मां, मैं तुम्हें प्यार करता हूं। मां, मां, मां। अब मां जाने कि मेरा क्या होगा। यह उनकी मर्जी। एक भक्त को पिछले हफ्ते पिघला देने वाला अत्यंत मधुर गीत गाते हुए सुना। वे बांग्ला भाषा में गा रहे थे- मां हैं, मैं हूं, और है कौन मेरा। मां का दिया खाता, पहनता हूं, मां ने लिया है भार मेरा।। (बांग्ला- मां आच्छे, आमी आछी आर के आमार। मांएर देया खाई, पोड़ी, मां निएछे भार आमार।।) अचानक देखा कि उनकी आँखों से आंसुओं की धारा बह रही है। उनकी आंखे बंद हैं। सब लोग आ जा रहे हैं। वे मंदिर के बाहर बने मंडप के एक कोने में बैठे हैं। एक धोती पहनी है और उसी को ओढ़ लिया है। उन्हें कुछ होश नहीं है। लगभग घंटा भर बैठ कर उन्हें रोते हुए देखा। समझ गया वे मां काली के उपासक हैं। इस समय वे समाधि जैसी स्थिति में हैं। भाग्यशाली हैं। अन्यथा इतनी भक्ति उन्हें मिलती कैसे?

Thursday, September 17, 2009

राधा यानी प्रबलतम प्रेम से दौड़ी आने वाली

विनय बिहारी सिंह

इस्कान के एक सन्यासी ने मुझे ई मेल भेजा है। बहुत ही रोचक। उन्होंने लिखा है कि भगवान कृष्ण के बाएं हिस्से से राधा उत्पन्न हुई हैं और दाएं अंग से शंकर जी ( भगवान शिव)। उन्होंने लिखा है राधा का अर्थ है प्रबलतम प्रेम से दौड़ी आने वाली। रा- यानी प्रबलतम वेग से। धा- यानी दौड़ी आने वाली। उन्होंने लिखा है कि अगर हमारे हृदय में राधा का प्रेम उत्पन्न हो तो हम भगवान कृष्ण को पा सकते हैं। कहते हैं कि एक बार राधा को तनिक गर्व हो गया कि कृष्ण उन्हीं को सबसे ज्यादा मानते हैं। कृष्ण ने उनके अहंकार को चूर करने का फैसला किया। उन्होंने राधा से कहा- चलो वन में घूमें। राधा- कृष्ण घूमते रहे, घूमते रहे। राधा ने कहा- मैं तो थक गई। अब लौट चलें। कृष्ण ने कहा- नहीं, और घूमेंगे। राधा ने कहा कि उनसे चला नहीं जाता। कृष्ण ने कहा- मेरे कंधे पर बैठ जाओ। राधा कृष्ण के कंधे पर बैठ गईं। यह अद्भुत था। राधा को लगा कि यह तो सर्वोच्च स्थिति है। मै ही अकेली हूँ जिसे कृष्ण ने कंधे पर बिठाया है। जब कि किसी भी गहरे भक्त को कृष्ण कंधे पर बिठाते हैं। वे भक्त के अनन्य प्रेमी हैं। लेकिन राधा को लगा कि वे सिर्फ उन्हें ही कंधे पर बिठाए हुए। ज्योंही राधा को यह गुमान हुआ कि बस, भगवान कृष्ण गायब हो गए। राधा धरती पर आ गईं। वे एकदम से व्याकुल हो गईं और कृष्ण- कृष्ण की रट लगाने लगीं। कृष्ण को उनसे अत्यंत प्रेम था, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन कृष्ण उन्हें कुछ सबक सिखाना चाहते थे। बहुत देर बाद राधा की प्रार्थना से पिघल कर वे प्रकट हुए। तब राधा ने उनसे क्षमा मांगी और कहा कि वे फिर कभी मन में अहं नहीं लाएंगी। एक भजन है न- प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर प्रभु को तुरत पिघलते देखा। एक अन्य सन्यासी ने गाया है- कृष्ण बसो मन में, राधा का प्यार बन कर। राधा का प्रेम दिव्य है। वे खुद को भी कृष्ण मानती हैं। उनका कहना है कि उनकी देह, हृदय, दिमाग और आत्मा पर कृष्ण का कब्जा है। तो फिर राधा है कहां? सब तो कृष्ण ही कृष्ण हैं। मैं भी कृष्ण और जिस वन में खड़ी हूं वह भी कृष्ण मेरे शरीर में जो हवा लग रही है वह भी कृष्ण और जिस अनंत प्रेम से मैं सराबोर हूं, वह भी कृष्ण।

Wednesday, September 16, 2009

सच्चा प्यार

विनय बिहारी सिंह

यह लेख एक युवक के लंबे पत्र के जवाब में है। युवक ने कहा है कि उसे आज तक सच्चा प्यार नहीं मिला। यह दुनिया स्वार्थी है। उसने वैराग्य भाव में लिखा है- मुझे क्या साधु बन जाना चाहिए?
परमहंस योगानंद जी का एक भजन है-
इस दुनिया में मां मेरा कोई प्रेमी नहीं।

इस दुनिया में प्रेम को कोई जाने नही।

जहा भी है वह शुद्ध प्रेम।

जहां भी है वह सच्चा प्रेम।

वहां मेरी आत्मा जाना चाहे।।


वह शुद्ध और सच्चा प्रेम कहां है? सिर्फ भगवान में। वे हमसे बिना कुछ चाहे प्यार करते हैं। हम उनसे प्यार करें या नहीं। हम अपने आसपास देखते हैं कि एक व्यक्ति दूसरे से जब प्रेम करता है तो उसके पीछे एक अदृश्य स्वार्थ रहता है। कई बार यह स्वार्थ दृश्य भी हो जाता है। न जाने कितने युवा आज तक न जाने कितनी सुंदर युवतियों से कह चुके होंगे- मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं। लेकिन इस प्यार में भी एक स्वार्थ है। कोई न कोई छिपी हुई शर्त है। वही युवती किसी दुर्घटना के कारण अगर कुरूप हो जाती है तो प्रेमी का वही प्यार गायब हो जाता है और वह उस युवती से दूर भागता है। ऐसे न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं। इससे स्पष्ट है कि युवक को उस युवती से नहीं, उसके चेहरे से प्यार था। जरा गहरे सोच कर देखें तो यह कितना चकित करता है। मनुष्य के जीवन में न जाने कितने पाखंड हैं । जीवन के अन्य पक्षों में भी इसी तरह का स्वार्थ आपको कहीं न कहीं जरूर दिख जाएगा। तब गहरे महसूस होता है कि ईश्वर के बिना हम जी ही नहीं सकते। वे ही हमारे सच्चे प्रेमी हैं। हमारा प्यार भी उनके प्रति सच्चा होगा तो हमारा आनंद कई गुना बढ़ जाएगा। और ईश्वर तो कहते भी हैं- हम भक्तन के भक्त हमारे। यह दुनिया जैसी है, वैसी है। हम इसे बदल नहीं सकते। हां, अपने को जरूर बदल सकते हैं। क्यों पहले हम किसी से प्यार की उम्मीद करें। क्यों न खुद प्यार बांटें। संतों ने कहा है कि अगर आपके दिल में प्यार होगा तो आपको प्यार मिलेगा। लेकिन प्यार का अर्थ सिर्फ स्त्री- पुरुष का ही प्यार नहीं है। कई लोग प्यार शब्द आते ही स्त्री- पुरुष के प्यार के अलावा कुछ सोच ही नहीं पाते। यह एकांगी सोच है। प्यार आया कहां से? ईश्वर ने दिया। तब हमने जाना कि यह प्यार है। सबसे पहला प्यार हमें अपनी मां से मिलता है। क्या उस प्यार की तुलना आप किसी भी अन्य संबंध से कर सकते हैं? मां का प्यार हमें अनंत आनंद में पहुंचा देता है। मां की गोद में बच्चा खुद को शाहंशाह समझता है- एकदम सुरक्षित। इसके बाद पिता का प्यार। फिर अन्य लोगों का प्यार। ईश्वर ही मां के रूप में हमें प्यार करते हैं, पिता के रूप में प्यार करते हैं, मित्र के रूप में प्यार करते हैं। ईश्वर से प्यार करने के लिए साधु होना जरूरी नहीं है। घर पर रह कर भी ईश्वर की भक्ति (भक्ति का चरम रूप ही प्यार है) की जा सकती है। संसार का काम करते हुए भी दिल में ईश्वर को रखा जा सकता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- जैसे कोई नौकरानी किसी धनी व्यक्ति के बच्चे को खूब प्यार करती है, उसकी देखभाल करती है, लेकिन उसका अपना दिल घर पर छोड़ आए अपने बच्चे पर लगा रहता है, ठीक उसी तरह हम भी संसार का काम करते हुए ईश्वर को हमेशा दिल में रख सकते हैं। तीव्र वैराग्य में साधु हो सकते हैं। लेकिन साधु हो जाने पर भोजन और वस्त्र की चिंता में सारा जीवन बिताना पड़े तो वह जीवन पारिवारिक जीवन से भी बदतर हो जाएगा। सारा दिन भोजन की चिंता में बीत जाए तो फिर घर ही क्या बुरा है। धन की जरूरत पड़ ही सकती है, कहां से आएगा धन? इसलिए धन का अर्जन करते हुए मन से साधु रहना भी उत्तम अवस्था है।

Tuesday, September 15, 2009

संत कबीर की गहरी दृष्टि

विनय बिहारी सिंह

संत कबीर बार बार मुग्ध करते हैं। उन्होंने लिखा है-

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उन्मान
कहिबे को सोभा नहीं, देखन को परमान।।

यानी ईश्वर के बारे में ठीक ठीक कोई आंखों देखा हाल नहीं कह सकता। बस आभास ही दिया जा सकता है। असली आनंद तो देखने में है। भगवान कैसे हैं, यह देख कर ही जाना जा सकता है। हां, संत भगवान् का जो आभास देते हैं हम उसी के आधार पर भगवान् की कल्पना करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथो में भगवान् के रूप का वर्णन है। जैसे श्रीमद भागवत में भगवान् कृष्ण के रूप के बारे में कहा गया हैअत्यन्त सुंदर शरीर, मोहक ऑंखेंजो आपकी और अत्यन्त प्यार से देखती हैं। भगवान् के गले में वन माला है, कौस्तुभ मणि की माला है, वैजयंती माला है, उनका हाथ घुटनों तक है। होठ लाल और मुस्कराते हुए। आप तो भगवान् की रूप माधुरी में खो जायेंगे। और जब वे बोलते है तो उनकी आवाज आपको मदहोश कर देती है, आप उनके प्रेम में गिरफ्तार हो जाते हैं। कहा गया है आप इसी रूप का मनन करें, चिंतन करें। आभास के ही आधार पर तो मंदिरों की मूर्तियां बनाई गई हैं। हम इन मूर्तियों को देख कर अंदाजा लगाते हैं कि भगवान राम ऐसे हैं, कृष्ण ऐसे हैं, मां काली ऐसी हैं वगैरह वगैरह। लेकिन हां, संतों ने यह भी कहा है कि आप अत्यन्त प्रेम और भक्ति के साथ किसी भी रूप में (अर्थात राम, कृष्ण या काली किसी रूप में ) भगवान को याद कीजिए, वे आपके सामने आएंगे ही। प्रेम के आकर्षण में वे दौड़ कर आते है। तब आप जान जाएंगे कि ईश्वर कैसे हैं। वे आकार वाले भी हैं और निराकार भी हैं। लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ेंगे, साधना करते जाएंगे, भगवान् अपना वास्तविक रूप बताते जाएंगे। क्या आनंद है, आगे बढ़ते जाइए, सुख पाते जाइए। असीम आनंद। लेकिन यह सहज नहीं मिलेगा, पहले साधना फिर आनंद।

Monday, September 14, 2009

अखंड एकरस आनंद यानी भगवान



विनय बिहारी सिंह़


आज गीता के १४वें अध्याय के २७वें श्लोक को पढ़ते हुए बहुत अच्छा लगा। इसे आपके साथ बांटना चाहता हूं। श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
ब्रह्मणः हि प्रतिष्ठा अहम, अमृतस्य अव्ययस्य च।


शास्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्य ऐकान्तिकस्य च।।
अर्थ है- हे अर्जुन, अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य धर्म का और अखंड एकरस आनंद का आश्रय मैं हूं। ईश्वर ही वास्तविक आनंद रस हैं। लेकिन हम लोग गलती से न जाने कहां कहां आनंद खोजते हैं। कभी भोजन में तो कभी घूमने में तो कभी गीत सुनने में तो कभी नींद में। लेकिन क्या गजब कि ये आनंद अधूरे जान पड़ते हैं। लगता है कि सब कर लिया लेकिन असली सुख और आनंद बाकी रह गया। कहां मिलेगा यह? इस श्लोक को आज बार- बार पढ़ा। ईश्वर ही रस है। कैसा रस? आनंद रस। स्वामी वल्लभाचार्य ने भगवान का दर्शन प्राप्त किया था। उनके शिष्यों ने कहा- आपने भगवान को कैसा देखा? इस पर वल्लभाचार्य ने जो गीत गाया वह जग प्रसिद्ध हो गया। आज भी इस भजन को सुन कर सुख मिलता है- मधुराधिपते रखिलं मधुरम। भजन लंबा है। लेकिन उसका अर्थ है कि भगवान का अधर मधुर है, वचन मधुर है, आंखें मधुर हैं और यही क्यों उनका अंग प्रत्यंक मधुर है। उनका चलना मधुर है उनकी चितवन मधुर है। तो फिर उनकी कृपा कैसे मधुर नहीं होगी? आइए रमण महर्षि को याद करें। रमण महर्षि ने कहा है कि मनुष्य के जीवन में भगवान ही गुरु के रूप में आते हैं। शास्त्रों ने भी कहा है कि गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं औऱ गुरु ही महेश हैं। गुरु ही साक्षात परब्रह्म हैं। यानी ईश्वर हैं। गुरु करते क्या हैं? वे ईश्वर से शिष्य को मिला देते हैं। तो क्या शिष्य सीधे- सीधे ईश्वर से नहीं मिल सकता? नहीं। क्यों? क्योंकि शिष्य जन्म जन्मांतर से न जाने कितनी मैल लेकर चल रहा है। उसके भीतर न जाने कितनी कामनाएं- वासनाएं भरी पड़ी हैं। वह जाएंगी तभी तो ईश्वर से साक्षात्कार होगा, ईश्वर की अनुभूति होगी। गुरु शिष्य की मैल साफ करते हैं। उसे इस योग्य बनाते हैं कि वह ईश्वर से मिलने योग्य हो सके। गुरु दरअसल शिष्य के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। एक उत्सुक व्यक्ति ने काफी पहले मुझसे पूछा था कि सद्घुगुरु कहां से पाएं। कौन सच्चा गुरु है, इसकी पहचान कैसे होगी? सभी तो टीवी पर प्रवचन देते नजर आते हैं। किसमें कितनी गहराई है पता कैसे चलेगा?हां, यह सच है कि आजकल पाखंडी लोगों का बाजार गर्म है। सद् गुरु कैसे मिले? सच्चे गुरु आज भी हैं। पर उन्हें ढूढ़ना असंभव नहीं है। सच्चे गुरु चुपचाप साधना में लीन रहते हैं और अपनी ख्याति के लिए बेचैन नहीं रहते। वे अपने चेलों की संख्या बढ़ाने के लिए उत्सुक नहीं रहते। वे बहुत ठोक बजा कर शिष्य चुनते हैं और उन्हें प्रशिक्षित कर ईश्वर की राह पर ले जाते हैं। लेकिन अगर कोई ऐसा गुरु आपको नहीं मिल सका है तो आप ईश्वर से प्रार्थना कीजिए और ईश्वर का ही नाम जप कीजिए। आपका काम हो जाएगा।

Saturday, September 12, 2009

मन को रोकना कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं

विनय बिहारी सिंह

सभी ऋषियों और भगवान कृष्ण ने कहा है कि मन चंचल और मथने वाला जरूर है लेकिन इसे रोकना असंभव नहीं है। जन्म जन्मांतर से तो मन को हमने भटकने के लिए छोड़ दिया था। अब जब हम उसे कंट्रोल करेंगे तो वह विद्रोह तो करेगा ही। कई बार तो लगता है कि मन रोकना असंभव है लेकिन अगर आप भी जिद पर अड़ जाएं और उसकी गतिविधि पर नजर रखें तो वह काबू में आ ही जाता है। संतों ने कहा है कि साक्षी भाव होना चाहिए। आप मन पर नजर रखिए कि वह कहां जा रहा है। अगर वह ईश्वर के अलावा कहीं और जाता है तो उसे वापस ईश्वर में लगा देना है। ऐसा करते करते एक दिन वह आपके वश में आ जाएगा। लेकिन हां, आसानी से नहीं, इस पर योजनाबद्ध ढंग से काम करते रहना पड़ेगा। हमेशा मन की चौकीदारी करनी पड़ेगी। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि मनुष्य खुद ही अपना मित्र है औऱ खुद ही अपना शत्रु। अगर मन हमारे नियंत्रण में है तो वह हमारा मित्र यानी हम अपने मित्र हैं। लेकिन अगर वह हमारा कहना नहीं मानता यानी हमने मन को नियंत्रण में नहीं रखा तो हम खुद अपने शत्रु हैं। मन को नियंत्रण में ही लाने के लिए कई लोग जप करते हैं। जप में पूरा ध्यान नाम जप पर लगा रहता है और मन जिसका जप करते हैं, उसके ध्यान में। इसी तरह भजन और कीर्तन में भी मन को लगा देने से वह वहां आनंद लेने लगता है। मन को आनंद चाहिए। अगर वह एक बार ईश्वरीय आनंद का सुख पा लेगा तो फिर लौट कर कहीं और नहीं जाएगा। बस यह विश्वास चाहिए कि मेरे सबसे हितैषी भगवान ही हैं। उन्होंने मुझे पैदा किया है। मैं अपने प्रयास से पैदा नहीं हुआ। ईश्वर ने हमें इस पृथ्वी पर भेजा। अब वही हमारा मालिक है। संपूर्ण शरणागति चाहिए। हर काम में भगवान को साथ ले लेने से यह काम आसान हो जाएगा। धीरे धीरे मन हमारे काबू में आएगा। जल्दी से नहीं।

Friday, September 11, 2009

मत आने दीजिए अवांछित विचारों को

विनय बिहारी सिंह

यह ठीक वैसे ही है कि अगर कोई अवांछित व्यक्ति आपके घर में आना चाहे तो आप पूरी शक्ति के साथ उसे खारिज कर देंगे और ऐसे व्यक्ति से अनंत कोस दूर रहना चाहेंगे। आप अपने घर में कूड़ा और गंदगी भी बर्दाश्त नहीं करेंगे। आप चाहेंगे कि आपका घर साफ- सुथरा, व्यवस्थित और आकर्षक हो। एक सन्यासी ने पूछा- ठीक यही बात क्या आपके अपने दिमाग के साथ लागू होती है? कई लोगों ने माना कि नहीं। हम बार बार चाहते हैं कि हमारा दिमाग अनावश्यक रूप से न भटके। आवारा न बने। हमेशा सकारात्मक बातों पर ही जाए। लेकिन होता नहीं है। जैसे हम घर को व्यवस्थित रखना चाहते हैं, हमारा दिमाग व्यवस्थित नहीं रह पाता। और भोजन के मामले में भी हम बहुत नियंत्रण से नहीं रहते। सामने कुछ स्वादिष्ट चीज आई, बस खा लिया। इस खाद्य पदार्थ से हमें कितनी पौष्टिकता मिलेगी, कितनी कैलोरी मिलेगी, इसका हम ख्याल ही नहीं करते। मानो हमारा पेट कुछ भी बर्दाश्त कर लेगा। खाते जाओ, पेट खराब होगा तो देखा जाएगा। इतनी निश्चिंतता क्या हमारे लिए ठीक है? यानी सन्यासी ने दो बातें कहीं- एक तो यह कि मन में वही विचार रखें जो सकारात्मक हों। नकारात्मक न हों। अगर फालतू बातें दिमाग में घुसने लगें तो उन्हें रोक कर बाहर फेंक दें। धीरे- धीरे जब आदत पुष्ट हो जाएगी तो फिर अपने आप मन स्वस्थ विचारों को ग्रहण करने वाला हो जाएगा। संतों ने कहा है कि आपके मन में जितने अच्छे विचार आएंगे, आपका जीवन उतना ही सुखी रहेगा। अगर आपके मन में किसी के प्रति क्रोध लगातार बना हुआ है तो आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं। जिस पर क्रोध आ रहा है उस पर तो कोई असर ही नहीं पड़ेगा। यानी आप अपने क्रोध से खुद को ही नष्ट कर रहे हैं। संतों ने एक और बात कही है- क्षमा। कुछ बातों को क्षमा कर देनी चाहिए। इससे आपका दिमाग फिर उधर नहीं जाएगा। मन जितना निर्मल रहेगा, भगवान आपसे उतना ही ज्यादा प्यार करेंगे। दूसरी बात है भोजन को लेकर। कई लोग पेट भर खाते हैं। संतों ने कहा है कि थोड़ी भूख बनी रहे तभी खाना खत्म कर देना चाहिए। हल्का खाना हो तो क्या कहने। हल्का यानी तली- भुनी चीजें न हों। कम तेल या घी में बनी चीजें हों। अगर आपको उबला या कम तेल घी की चीजें खाते- खाते उबन हो गई हो तो इसका भी उपाय है। स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना कठिन नहीं है। कल मैंने घर पर बिना घी का पराठा खाया। कैसे? पराठा की परतों के बीच में नाम मात्र का पिघला घी या मक्खन डाल कर ऊपर से सूखा पराठा बना लीजिए। यह आराम से फूल जाता है और आसानी से पचता भी है। लेकिन यह भी कभी कभी ही खाया जा सकता है। बहुत हुआ तो हफ्ते में एक दिन। सबसे अच्छी है रोटी। जौ, गेहूं और मक्के के आटे एक साथ मिला कर भी बीच- बीच में मिक्स आटे की रोटी खाई जा सकती है। अगर इन झमेलों से बचना चाहते हैं तो सिर्फ गेहूं की रोटी खा कर आनंद से रह सकते हैं।

Thursday, September 10, 2009

पेड़ों से भी पैदा की जा सकती है बिजली

विनय बिहारी सिंह

यूनिवर्सिटी आफ मेसाचुसेट्स के विशेषग्यों ने पेड़ों से बिजली बनाने का अनोखा अविष्कार किया है। हमारे ऋषि- मुनि पेड़ को प्रकाश में बदल देते थे। पेड़ों से संवाद करते थे और मंत्रोच्चार से वातावरण को इस तरह स्पंदित कर देते थे कि वहां जाने वाला व्यक्ति बहुत राहत महसूस करता था और उस ऋषि के आश्रम में बार बार जाने के लिए बेचैन रहता था। हमारे ऋषि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय काम करते थे और आज भी हिमालय की कंदराओं और अनेक गुप्त जगहों से हम सब के कल्याण के लिए स्पंदन भेजते रहते हैं। यूनिवर्सिटी आफ मेसाचुसेट्स के लोगों ने एक इलेक्ट्रोड पेड़ में औऱ दूसरा पास ही जमीन में स्थापित कर देखा कि पेड़ों में पर्याप्त ऊर्जा होती है और इससे बिजली पैदा करना बहुत मुश्किल काम नहीं है। उनके सहयोग में यूनिवर्सिटी आफ वाशिंगटन के वैग्यानिक भी हैं। उन्होंने पाया कि पेड़ जितनी ऊर्जा पैदा करते हैं, उससे इन पेड़ों का काम तो चल ही सकता है, हमें भी बिजली मिल सकती है। यह बिजली कभी कटेगी नहीं। लगातार इसकी आपूर्ति होती रहेगी। लेकिन कुछ वैग्यानिकों का कहना है कि अगर पेड़ों की प्राकृतिक ऊर्जा का इस तरह दोहन हुआ तो ये पेड़ सूखने लगेंगे और उनकी मूल प्रकृति में अंतर आ जाएगा। पेड़ों को उनकी प्राकृतिक अवस्था में ही रहने दिया जाए तो अच्छा है। लेकिन प्रयोग करने वाले वैग्यानिक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि पेड़ों से जितनी ऊर्जा का दोहन किया जाएगा, पेड़ फिर से उतनी ऊर्जा प्राप्त कर लेंगे। अब आइए अपने ऋषि मुनियों के प्रयोगों पर आएं। ऋषि पेड़ों की ऊर्जा का दोहन नहीं करते थे। वे पेड़ों की ऊर्जा को और बढ़ा कर पेड़ों का भला करते थे। इससे पेड़ों पर फल- फूल खूब होता था। पेड़ फलों से लदे रहते थे। तब यह जरूरी नहीं था कि अन्न से ही पेट भरा जाए। लोग तरह तरह के स्वादिष्ट जंगली फलों को खाते थे और खूब स्वस्थ रहते थे। इन ऋषियों की शिक्षा का प्रभाव यह था कि लोग भी परोपकार को अपना धर्म मानते थे। आज परोपकार और बहुजन हिताय की बात सोचने वाले कम हो गए हैं। सब अपना सोचते हैं। हमारे ऋषि कितने दूरदर्शी थे यह उनके चिंतन से पता चलता है। वे जानते थे कि सब लोग सबका हित सोचेंगे तो समाज अपने आप खुशहाल हो जाएगा। अगर हर आदमी एक दूसरे को लूटने की सोचेगा तो यह समाज क्या नर्क नहीं हो जाएगा। एक मित्र तो कहते हैं कि नर्क होगा नहीं हो चुका है। कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा है। लेकिन नहीं, हमारे समाज में भला सोचने वाले, परहित धर्म को मानने वाले लोग भी हैं। संख्या में कम ही सही। हैं जरूर। इनकी संख्या बढ़ेगी। बढ़नी भी चाहिए।

Wednesday, September 9, 2009

शरीर के पांच कोष



विनय बिहारी सिंह


संतों ने कहा है कि हमारे शरीर में पांच कोष होते हैं- अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विग्यानमय कोष और आनंदमय कोष। अन्नमय कोष से आगे बढ़ते हुए आनंदमय कोष तक सूक्ष्म से सूक्ष्मतम की यात्रा है। अन्नमय कोष यानी हमारा स्थूल शरीर। अन्न से पोषित शरीर। जो लोग शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, वे अन्नमय कोष तक ही सीमित रहते हैं। यानी वे खाना, पहनना, घूमना और शरीर को ही सबकुछ समझना अंतिम कर्तव्य मानते हैं। इससे आगे है प्राणमय कोष। हमारा श्वांस- प्रश्वांस। यानी मनुष्य समझने लगता है कि अन्न और शरीर ही सब कुछ नहीं है। हमारा शरीर अन्न से ही नहीं जीवित है। श्वांस और इसके साथ महाप्राण भी बहुत जरूरी है। यानी कास्मिक इनर्जी भी बहुत जरूरी है। यहीं से चिंतन शुरू होता है- मनुष्य क्या है। जन्म से पहले कहां था? मरने के बाद कहां जाएगा? फिर है- मनोमय कोष। यानी माइंड। संकल्प- विकल्प इत्यादि। चिंतन भी आगे बढ़ता है। इस सृष्टि को इतने व्यवस्थित ढंग से कौन चला रहा है? ये चांद, सितारे आपस में क्यों नहीं टकराते। दिन और रात क्रम से आते जाते हैं। यह सब कैसे होता है? इसके बाद आता है विग्यानमय कोष। मनुष्य का चिंतन और गहराता है। साधकों को ईश्वर की अनुभूति होती है। ईश्वरीय धारणाएं पुष्ट होती हैं। अंतिम है आनंदमय कोष। ईश्वर की प्राप्ति के बाद आनंद ही आनंद। सर्वं खल्विदं ब्रह्म। सबकुछ ईश्वर का अंश है- यह भाव। लेकिन हर आदमी के भीतर यह विकास क्रम नहीं घटित होता। कई लोग शरीर से ऊपर नहीं उठ पाते। वे ऐसा मानते हैं कि शरीर की तृप्ति ही सब कुछ है। ऐसे में उनका चिंतन शरीर के इर्द- गिर्द ही घूमता है और शरीर पर ही खत्म होता है। लेकिन जो सूक्ष्म तत्व का अनुभव करता है वह समझता है कि नहीं मैं शरीर (या इंद्रियां) नहीं, मन नहीं , बुद्धि नहीं। मैं हूं शुद्ध सच्चिदानंद। ईश्वर का अंश। तुलसीदास ने लिखा ही है- ईश्वर अंस जीव अविनासी।

Tuesday, September 8, 2009

क्या साइंस साबित करेगा कि ईश्वर हैं या नहीं?

विनय बिहारी सिंह


आश्चर्यजनक सवाल उठाया गया है। पूछा गया है कि जो चीजें साइंस प्रमाणित करता है, वही सच हैं। बाकी गलत। ईश्वर के होने का प्रमाण आज तक साइंस के पास नहीं है। क्यों? जितने भी साधु संत हैं, उन्होंने लोगों को भरमाया है, यह आरोप लगाया गया है। तो क्या महान ऋषि पातंजलि ने भी लोगों को भरमाया है? पातंजलि तो ईश्वर का साक्षात्कार कर चुके थे। तब उन्होंने पातंजलि योग सूत्र लिखा। आजकल के भगवान विरोधी लोगों को हो क्या गया है? क्या रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, स्वामी विवेकानंद, चैतनय महाप्रभु, तुलसीदास, सूरदास, वेदव्यास, शुकदेव, विश्वामित्र, अष्टावक्र, या संक्षेप में कहें सप्त ऋषियों ने झूठ कहा था कि ईश्वर हैं? क्या आजकल के ये बेकार में शोर गुल करने वाले लोग ही असली विद्वान हैं। दुनिया भर के धर्मग्रंथ झूठे हैं? अध्यात्म कहता है कि हमारी रीढ़ की हड्डी में छह चक्र होते हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आग्या चक्र। यह मैं नहीं ऋषि पातंजलि ने कहा है। इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियां हैं। किसी शरीर का आपरेशन करके ये चक्र या नाड़ियां तो नहीं खोजी जा सकतीं। क्योंकि सभी ऋषियों ने कहा है कि ये चक्र और नाड़ियां सूक्ष्म हैं। तो क्या ये तर्क करने वाले कहेंगे कि वे सूक्ष्म चीजों के अस्तित्व को नहीं मानते? आगर नहीं मानते तो भैया अपने प्राण को भी मत मानो। तुम्हारा प्राण भी सूक्ष्म ही है। जब यह तुम्हारे शरीर से निकलता है तो तुम्हारे पास खड़ा आदमी भी नहीं देख सकता। लोगों को मरते अनंत लोगों ने देखा है। क्या कोई बोल सकता है कि अमुक व्यक्ति का प्राण उसने अमुक जगह जाते हुए देखा है? नहीं। यह संभव ही नहीं है। तो क्या प्राण नहीं है? है। हर व्यक्ति कहेगा है। तो मेरे तर्कवादी भाइयों इसी तरह ईश्वर भी है। उसे जानने की विधियां हैं। उन पर अमल करना पडेगा तब ईश्वर है जान पाओगे। सिर्फ तर्क करने से ईश्वर को नहीं जाना जा सकता। तर्क और अनुभूतियों में जमीन आसमान का अंतर है। बोलने और महसूस करने में आकाश पाताल का फर्क है। कभी किसी दिव्य संत के संपर्क में आओ, आध्यात्म में गहरे डूबो। तब ईश्वर की अनुभूति होगी। सिर्फ़ बैठ कर उत्तेजना पैदा करने और प्रपंच करने से कुछ भी हासिल नही होने वाला। बड़े बड़े लोग ईश्वर का विरोध कर चले गए।ईश्वर ने ही तुम्हे बनाया है मेरे भाई। अपने ही वजूद पर सवाल? साइंस की एक सीमा है। लेकिन ईश्वर की सीमा नहीं है। ईश्वर अनंत हैं। कैसे जान पाओगे सिर्फ तर्क से?

Monday, September 7, 2009

तनाव और भय पर साइंस की क्या राय है?

विनय बिहारी सिंह

हां, कुछ लोग बहुत जल्दी तनाव में आ जाते हैं। तनाव हमें धीरे- धीरे मारता है। कैसे? डाक्टर कहते हैं- भय भी खतरनाक है। अगर आपके मन में किसी बात को लेकर लगातार डर चल रहा है तो निश्चित जानिए कि आपके शरीर में हार्मोनल परिवर्तन हो रहा है। डरने से आपके शरीर में एड्रीनलीन की मात्रा बढ़ जाती है। नतीजा यह होता है कि आपके शरीर और नर्वस सिस्टम पर बुरा प्रभाव पड़ता है और आपके भीतर एक स्थाई डर का रोग कुंडली मार कर बैठ जाता है। इसी तरह अगर आप तनाव में हैं तो कार्टिसाल नामक हारमोन आपके शरीर में अतिरिक्त रूप से स्रावित होगा औऱ आप बिना वजह भी तनाव में रहने लगेंगे। बात बेबात झुंझला कर बोलने लगेंगे और अगर बस छूट गई तो भी आप भारी तनाव में आ जाएंगे। यह नहीं कि वैकल्पिक उपाय के बारे में सोचें। अगर आपके भीतर क्रोध है या आप लगातार किसी बात से कुढ़ रहे हैं तो इससे आपका कोलेस्टेराल का स्तर बढ़ेगा और आपका ब्लड प्रेसर भी हाई हो जाएगा। लगातार क्रोध और कुढ़न के कारण कई लोगों को हर्ट अटैक और ब्रेन हेमरेज भी हो जाता है। इससे ठीक विपरीत अगर आप खुल कर हंसने वाले व्यक्ति हैं तो आपका बहुत फायदा है। इससे आपके शरीर में एंडोमार्फीन का स्तर बढ़ जाएगा और आप हमेशा खुशमिजाज ही रहेंगे। इससे स्वास्थ्य तो आनंददायक होगा ही, आपकी आयु भी बढ़ेगी। आपका व्यक्तित्व भी आकर्षक बनेगा। संतों ने कहा है कि खुश और आनंद में रहने के लिए रात को सोते समय या फुरसत के क्षणों में कोई अच्छी धार्मिक पुस्तक पढ़नी चाहिए। सभी जानते हैं कि ईश्वर कृपासागर हैं। वे अपने भक्तों पर अकारण कृपा करते हैं। अगर आपके पास पुस्तक भी पढ़ने का समय नहीं है तो आप ईश्वर के गुणों और उनकी लीलाओं का ही स्मरण कर सकते हैं। इसके लिए तो समय मिल ही जाएगा। कहीं बस में या ट्रेन में या रिक्शा में जा रहे हैं और ईश्वर का स्मरण कर रहे हैं। इसमें कितना आनंद है। ऐसा करने से न तो आपके पास तनाव फटकेगा और न ही कोई डर सताएगा। आप जीवन में एक सुखी इंसान की तरह रहेंगे।

Saturday, September 5, 2009

शांत और स्थिर मन

विनय बिहारी सिंह

कोई भी काम हड़बड़ी या बेचैनी में नहीं किया जा सकता। लेकिन हैरानी है कि कई लोग ऐसा करते हैं। उदाहरण के लिए दोपहर को जब वे खाना खाने बैठते हैं तो भी उनका दिमाग भारी तनाव लिए रहता है और इस तरह वे भोजन के संपूर्ण रस तत्व का आनंद नहीं ले पाते। यानी खाना वे नहीं, उनका तनाव खाता है। इसी तरह जीवन के हर काम में चंचल दिमाग हस्तक्षेप करता रहता है। परमहंस योगानंद ने कहा है- अगर जल हिल रहा है तो उसमें सूरज और चांद की तस्वीर भी हिलेगी। वह भी ऐसा जल जो गंदा है। जब तक उसकी मैल नीचे नहीं बैठ जाती, कोई भी प्रतिबिंब गंदा और हिलता हुआ दिखेगा। तो प्रश्न है कि क्यों कोई इतनी बेचैनी में या एबसेंट माइंडेड होकर खाना खाता है? इसके जिम्मेदार हम खुद हैं। हमने खुद को तनाव में रखने या खाना खाते समय दिमाग को जहां तहां दौड़ाने का आदी बना रखा है। जाने अनजाने। तो इसके लिए क्या करें? संतों ने कहा है कि हमेशा ईश्वर को साक्षी मान कर भोजन कीजिए। मान कर चलिए कि आपके साथ ईश्वर भी भोजन कर रहे हैं। फिर देखिए भोजन का आनंद दोगुना हो जाएगा। यह भी मान कर चलिए कि आपके जीवन का तनाव धीरे-धीरे घट रहा है और आधे घंटे के अंदर जल कर राख हो गया। यह कल्पना करते ही आप पाएंगे कि दिमाग राहत महसूस कर रहा है। यह प्रयोग आप करके देखिए। आपका दिमाग शांत हो जाएगा। यानी जल की हलचल बंद हो जाएगी। जल शांत और स्थिर हो जाएगा और सूर्य या चंद्रमा का बिंब उसमें साफ नजर आएगा। ईश्वर के संपर्क का यही चमत्कार है। लेकिन अगर मन में जरा भी शंका रही कि पता नहीं ईश्वर हैं या नहीं, बस आप जहां के तहां ही रहेंगे। वही तनाव, वही परेशानियां। ईश्वर नहीं हैं तो यह सारी सृष्टि चल कैसे रही है? आदि शंकाराचार्य ने कहा है- जन्म से पहले हम कहां थे? इस संसार में क्यों आए? मृत्यु के बाद कहां जाएंगे? यह सोच कर अंत में आप पाएंगे कि ईश्वर ही सब कुछ हैं। भगवान हमेशा आपके साथ हैं और रहेंगे। आप ही ईश्वर से दूर थे। हमारे सबसे प्रिय ईश्वर हैं। दुख में, सुख में हर क्षण, यहां तक कि नींद में भी हमारी सुधि वही तो लेते है। इसलिए सर्वाधिक प्रिय वही है।

Friday, September 4, 2009

भगवान का रूप कैसा है

विनय बिहारी सिंह

भगवान का रूप किस तरह का है? यह प्रश्न कल के मेरे लेख से पैदा हुआ है। साकार भगवान के रूप पर आज चर्चा हो। गीता के ११वें अध्याय में अर्जुन ने कहा कि भगवन, आपने मेरा अग्यान दूर कर दिया। लेकिन आपके रूप को मैं अपनी आंखों से देखना चाहता हूं। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम अपने प्राकृत नेत्रों से मेरे रूप को नहीं देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य चक्षु दे रहा हूं। तुम एकादश रुद्रों, उनचास वायुओं और सभी देवताओं को मुझमें देखो। यानी सारी सृष्टि, सभी देवता मेरे ही अंश हैं। भगवान का यह रूप विश्व रूप भी कहा जाता है। इसे देख कर अर्जुन डर गए। उन्होंने कहा- जैसे नदियां वेग से बहते हुए समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह सभी योद्धा और जीव वेग से आपके मुंह में समा रहे हैं। आपको देख कर मैं ही नहीं, अन्य लोग भी भयभीत हो रहे हैं। कृपया आप अपने चिर परिचित स्वरूप यानी शंख, चक्र, गदा, पद्म (कमल) धारण किए हुए चतुर्भुज रूप में प्रकट होइए। इसके पहले वे स्तुति करते हैं-
नमो नमस्तेस्तु सहस्र कृत्वः।

पुनश्च भूयोपि नमो नमस्ते।

नमः पुरस्तादथ पृष्टतस्ते।

नमस्तुते सर्वत एव सर्व।।
भगवान कृष्ण अपने उसी पुराने रूप आ जाते हैं। गीता में दरअसल ये सारी बातें संजय, धृष्टराष्ट्र को सुना रहे हैं। संजय कहते हैं- जिस समय भगवान कृष्ण ने अर्जुन के सामने अपने दिव्य रूप को प्रकट किया, उस समय लगा कि हजारो सूर्य एक साथ आकाश में उदित हों, तो भी इतना प्रकाश नहीं होगा, जितना उस समय हुआ। लेकिन अर्जुन की आंखें चौंधियाईं नहीं। उन्हें दिव्य आंखें मिली हुई थीं। भगवान के दिव्य रूप को देख कर अर्जुन कहते हैं- भगवान मैं आपके रूप को तो देख रहा हूं, लेकिन न तो मैं आपके आदि को देखता हूं, न मध्य को और न ही अंत को। आपकी अनंत जंघाएं हैं, अनंत पेट हैं और अनंत रूप हैं। तो भगवान तो अर्जुन के सामने साकार रूप में हैं, लेकिन अर्जुन न आदि देख पा रहे हैं, न मध्य और न अंत। ऐसे ही हैं भगवान। वे साकार भी हैं औऱ निराकार भी। चतुर्भुज भी हैं और द्विभुज भी। अगर सौंदर्य का सारा तत्व एक जगह कहीं है तो वह हैं भगवान। उनसे सुंदर और कौन है?

Thursday, September 3, 2009

उन्होंने कहा- मैं ईश्वर को निराकार मानता हूं

विनय बिहारी सिंह

कल एक परिचित मिले। थोड़ी देर अध्यात्म चर्चा के बाद बोले- मैं तो हैरान हूं कि लोग साकार ईश्वर की पूजा क्यों करते हैं। मूर्ति पूजा से व्यक्ति भगवान को सीमित कर देता है, जबकि ईश्वर तो अनंत है। उन्होंने कहा- मुझे मूर्ति पूजा अच्छी नहीं लगती। लेकिन क्या करूं, मेरे घर में ही मूर्ति पूजा होती है। फिर उन्होंने मुझसे पूछा- आपकी क्या राय है? मैंने उनसे पूछा - आपने वेद व्यास की लिखी भगवत गीता पढ़ी है? उन्होंने कहा- हां। मैंने कहा- उसमें भगवान कृष्ण ने कहा है कि वे साकार पूजा करने वालों को भी प्यार करते हैं और निराकार पूजा करने वालों को भी। फिर साकार या मूर्ति पूजा के प्रति इतनी विरक्ति क्यों? इसी प्रश्न पर रामकृष्ण परमहंस हंस कहते थे- क्या भगवान नहीं जानते कि उन्हीं की पूजा हो रही है? उन्हीं का ध्यान हो रहा है, उन्हीं का जप हो रहा है? एक गोल पत्थर को भी भगवान के रूप में पूजा करेंगे तो भगवान को पता चल जाता है कि पत्थर रूप में कौन उनकी पूजा कर रहा है। वे सर्वव्यापी, सर्व ग्याता और सर्वग्य तो हैं ही, कृपा सागर भी हैं। उन्हें पता है कि कौन उनकी पूजा कर रहा है, क्यों कर रहा है। ईश्वर से क्या कुछ छुपा है? आप उन्हें साकार रूप में याद करें या निराकार रूप में वे बस आपका प्यार चाहते हैं। उन्होंने मेरा जवाब सुना। बहुत देर तक सोचते रहे। लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यह ठीक है कि ईश्वर सर्वव्यापी है, लेकिन वह किसी साकार रूप में आकर सीमित कैसे हो सकता है। तुलसी दास के रामायण में भगवान शिव, भगवान राम के बारे में बताते हैं-पग बिनु चलै, सुनै बिनु काना। कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।(उनके पैर नहीं हैं, लेकिन गतिमान हैं, कान नहीं हैं लेकिन सब सुनते हैं, हाथ नहीं हैं लेकिन असंख्य काम करते हैं।) भगवान राम की यह व्याख्या बताती है कि वे साकार भी हैं और निराकार भी। सीमित देह रूप में दिखने के बावजूद वे अनंत हैं। यह भगवान की विशेषता है।

Wednesday, September 2, 2009

योगासन से ठीक हो गया कमर दर्द

विनय बिहारी सिंह

आज मैं अपने जीवन में हुए एक चमत्कार के बारे में बताना चाहता हूं। पिछले जून में अचानक मेरी कमर में दर्द शुरू हो गया। इतना दर्द कि मेरा चलना मुश्किल हो गया। लेटे रहने पर तो ठीक रहता था लेकिन ज्योंही मैं चलता था, दर्द असह्य हो जाता था। डाक्टर को दिखाया, दवा खाई। कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। मैं हर रविवार को योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया के दक्षिणेश्वर (कोलकाता) मठ में जाता हूं। इस मठ को सुविख्यात पुस्तक- आटोबायोग्राफी आफ अ योगी (योगी कथामृत) के लेखक परमहंस योगानंद जी ने बनवाया था। सुबह साढ़े दस बजे से रात सात बजे तक इस मठ के पवित्र माहौल में रहते हुए सुख मिलता है। वहां के सन्यासियों के साथ सत्संग का लाभ शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। रविवार को दिन का भोजन वहीं करता हूं। दर्द तो था लेकिन सन्यासियों से मिलने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाया और कष्ट के बावजूद किसी तरह मठ में पहुंच गया। मैंने मठ के एक सन्यासी स्वामी शुद्धानंद जी से मुलाकात की और अपने असह्य कमर दर्द के बारे में बताया। उन्होंने कहा- आप किसी आर्थोपेडिक डाक्टर से दिखा लीजिए। फिलहाल मैं आपको एक योगासन बताता हूं, उसे आप करिए। उन्होंने तीन योगासन बताए मुझे जमीन पर लेट कर करने को कहा। उनके निर्देश पर उनके सामने आसन का अभ्यास करते समय ही मेरा आधा दर्द खत्म हो गया। अगले दिन मैंने जब योगासन किया तो रात तक पूरा दर्द चला गया। मैं अगले रविवार को पहुंचा औऱ स्वामी जी से इस चमत्कार के बारे में बताया। २४ घंटे के अंदर दर्द का पूरी तरह जाना मेरे लिए चमत्कार था। उन्होंने कहा- इसे करते रहिए। मैंने पूछा- अब क्या डाक्टर के पास जाने की जरूरत है? उन्होंने कहा- अगर तकलीफ बिल्कुल खत्म हो गई तो फिर कोई जरूरत नहीं। मैं हैरान हूं। जो दर्द मुझे भीतर तक छेद रहा था और लग रहा था कि अब जाने क्या होगा, वह सिर्फ योगासन से ठीक हो गया? हाँ, सच यही है।

Tuesday, September 1, 2009

शांति नकारात्मक नहीं होनी चाहिए

विनय बिहारी सिंह

ईश्वर का आनंद पाने के लिए शांति बहुत जरूरी है। अगर आप शांत नहीं हैं तो न पूजा ठीक से होगी, न ही ध्यान ठीक से होगा। यही क्यों, कोई भी काम ठीक से नहीं होगा। संतों ने कहा है कि शांति दो प्रकार की होती है- १. सुखद शांति और नकारात्मक शांति। सुखद शांति तो वह है जिसमें आप सब कुछ ईश्वर को समर्पित करके आनंद से पूजा- पाठ या ध्यान करने बैठते हैं। आप सुख में इसलिए होते हैं क्योंकि आपका सारा भार ईश्वर ले चुके होते हैं। लेकिन नकारात्मक शांति क्या है? मान लीजिए आप किसी चीज के लिए बहुत कोशिश कर रहे हैं। अचानक पता चला कि वह चीज आपको नहीं मिलेगी। वह कोई और ले गया। यह चीज नौकरी हो सकती है, व्यवसाय का कोई मौका हो सकता है, कोई कांट्रेक्ट हो सकता है या कोई वस्तु हो सकती है। या किसी ने आपको धोखा दे दिया तब भी आप अचानक शांत हो जाते हैं। यह शांति नकारात्मक है। प्रतिक्रिया के रूप में आती है यह। लेकिन सुखद शांति आनंद की स्थिति है। दुख और तकलीफ तो गुजर जाने वाली स्थिति है। जैसे नदी में पानी बह गया, ठीक उसी तरह आपकी तकलीफ गुजर गई। परेशानी और तनाव खत्म हो जाते हैं एक समय के बाद। लेकिन जब तक रहते हैं मन पूछता है- ये कब खत्म होंगे? लेकिन सुख के दिन? आनंद के दिन? मानों तुरंत खत्म हो गए। ईश्वर से संबंध जोड़ना सुख के दिनों में रहने जैसा है। लेकिन ईश्वरीय आनंद, ईश्वरीय सुख जल्दी खत्म नहीं होता। परमहंस योगानंद जी का एक भजन है- आनंद, आनंद, नित्य नवीन आनंद। ईश्वर नित्य नवीन आनंद हैं। आप इनसे जुड़िए। वे आपकी राह देख रहे हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं। लेकिन आपका प्यार चाहते हैं। हम उनसे जुड़ कर सुख और आनंद के सागर में गोते लगाने लगते हैं। नित्य नवीन आनंद। लेकिन जब तक हम सांसारिक बातों में उलझे रहेंगे, ईश्वर में मन नहीं लगेगा। दस मिनट के लिए ही सही संसार की तरफ से हट कर ईश्वर में डूब कर तो देखिए। आपको आनंद ही आनंद मिलेगा।